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महातीर्थ कायवरोहण का संक्षिप्त इतिहास
कायावरोहण भारत वर्ष का पौराणिक महातीर्थ है और गुजरात की काशी के नाम से प्रसिद्ध है । यह पवित्र मंदिर भारत के अड़सठ महातीर्थों में गिना जाता है । यह महातीर्थ चारों युगों में प्रसिद्ध रहा है । "गणकारिका" ग्रंथ में ( जिसे शिवपुराण में सम्मिलित माना जाता है । ) "कायवरोहण माहात्म्य" के चार अध्याय मिलते हैं । जिसमें चौथे अध्याय में कहा गया है कि यह तीर्थ
" सर्व पापं हरं पुण्यम् श्रीमद् कायवरोहणम् ।
कायवरोहणे तीर्थे मूर्तिमान शंकर: स्वयंम् ।। "
इस तीर्थ का नाम सतयुग में इच्छापुरी, त्रेतायुग में मायापुरी, द्वापरयुग में मेघावती और कलियुग में कायवरोहण रहा है ।
शिवपुराण की " शतरुद्र संहिता " में भगवान शिव स्वयं ब्रह्मा से कहते हैं कि "वराह कल्प" के सातवें वैवस्वत मनवंतर के 28वें द्वापर में मैं अपनी योगमाया के प्रभाव से एक ब्रह्मचारी रूप में प्रकट होऊंगा और इसी रूप का नाम "लकुलीश" होगा । मेरे इस अवतार की भूमि कायवरोहण उत्कुष्ट सिद्धक्षेत्र कहलाएगी और जब तक पृथ्वी सदा रहेगी तब तक तीनों लोकों में परम प्रसिद्ध रहेगा । उस अवतार में भी मेरे चार तपस्वी शिष्यों कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य होंगे । वे वेदों का पारगामी ऊर्ध्वरेता ब्रह्म योगी होंगे और महेश्वर योग प्राप्त करके शिवलोक प्राप्त करेगा " यह भूमि कायवरोहण है । भगवान लकुलीश के अवतरण काल में लगभग आठ सौ वर्ष पूर्व भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों का संचालन कायवरोहण से हुआ था, इस काल में यह भारत का अति महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल माना जाता था । इस पवित्र तीर्थ में कई मंदिर, तीर्थस्थल, पुस्तकालय, मठ, स्कूल, गौशाला, नंदीशाला, धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, औषधालय, सत्संग भवन आदि थे । यह तीर्थ बहुत विशाल था । यह महातीर्थ महर्षि विश्वामित्र, भृगु, अत्री, दुर्वाशा, इत्यादी ऋषिओ की तपो भूमि है । यह महातीर्थ "सिद्ध" क्षेत्र है । इस भूमि पर माता-सती का कंधा गिरा था इसी कारण यह महातीर्थ "शक्ति पीठ" के नाम से भी जाना जाता है। महर्षि विश्वामित्र ने इसी भूमि पर गायत्री मंत्र का अर्श दर्शन किया था । इस सिद्ध क्षेत्र में ૐ, गायत्री और राम मंत्र का जाप करने से तुरंत फल मिलता है ।
भगवान लकुलीशजी ने जिस कार्य के लिए अवतार लिया था, वो अवतार कार्य पूर्ण करके अपने चार शिष्यों की उपस्थिति में ध्यानमग्न हो गये । उनका स्थूल स्वरूप तेजोमय बनकर ज्योत के रूप में ब्रह्मेश्वर के लिंग के अग्र भाग में मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । भगवान लकुलीशजी के अवतार के दौरान और बाद में, उनके चार शिष्यों ने चारों दिशाओं में दुनिया का भ्रमण किया और शिव धर्म, शिव भक्ति और महेश्वर योग का प्रचार- प्रसार किया । यह काल भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का स्वर्ण युग था ।
ब्रह्मेश्वर भगवान के लिंग के भूमिगत रूप से प्रकट होने के इतिहास के बारे में बात करते हुए, इस कयावरोहण नगर में श्री हीराभाई शामलभाई पटेल को अपने पूर्वजों से विरासत में मिली भूमि मे भलाभाई नामक एक किसान खेती करता था । एक दिन जब वह नित्यक्रम से हल से खेत जोत रहा था तो उसका हल अचानक खेत के एक भाग में रुक गया । भलाभाई ने आकर ध्यान से देखा तो वहां उन्हें ब्रह्मेश्वर भगवान का अति सुंदर रूप दिखाई दिया । भलाभाई की खुशी का ठिकाना न रहा, वह शिव भक्त था इसीलिये वे अत्यंत भावुक हो उठे, और गांव में जाकर श्री हीराभाई शामलभाई के खेत में हुई घटना की जानकारी सभी ग्रामीणों को देता है । यह जानकर सभी ग्रामवासी इस खेत में आते हैं और भूमि में दबे भगवान श्री ब्रह्मेश्वर के लिंग को सावधानी से बाहर निकालते हैं और भजन मंडलों के साथ "ૐ नमः शिवाय" का जाप करते हुए गाँव में लाते हैं । बाद में, गाँव में हजारों साल पुराने शिवालय में "भगवान लकुलीशजी" की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करके मंदिर का नाम "श्री राजराजेश्वर महादेव" रखा गया। यह मंदिर के पास हरेक पूर्णिमा के दिन मेला हुआ करता था ।
भगवान लकुलिश और विश्वामित्र ऋषि ने स्वामीश्री कृपालवानंदजी (बापूजी) को साक्षात दर्शन दीया और इस महातीर्थ को पुनरुद्धार करने का आदेश दिया । जिसके अनुसार योगाचार्य स्वामीश्री कृपालवानंदजी ने "श्री कयावरोहण तीर्थ सेवा समाज" की स्थापना की और इस कार्य की शुभारंभ कीया । ता.29/11/1968 के दिन, "1008 पूज्यपाद श्री द्वारका पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्यजी ने ब्रह्मेश्वर योग मंदिर का शिलान्यास किया और उनके करकमलों द्वारा भगवान ब्रह्मेश्वर के ज्योतिर्लिंग को ता.03/05/1974 के दिन नए भव्य मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कि । महातीर्थ के पुनरुद्धार में श्री हीराभाई शामलभाई पटेल परिवार का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था । स्वामीश्री कृपालवानंदजी की प्रेरणा से श्रीकायवरोहण तीर्थ सेवा समाज ने योग और अध्यात्म का प्रचार-प्रसार के माध्यम से सनातन संस्कृति के पुनरुत्थान और मानव कल्याण गतिविधियों को मुख्य उद्देश्य बनाया यहा पर ब्रह्मेश्वर भगवान की पूजा-अर्चना के लिए सुंदर स्थाई व्यवस्था की गई है । संस्कृति के पुनरुत्थान एवं ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए यहाँ "श्री लकुलिश योग विद्यालय" चलाया जाता है । यहा किसी जाति, पंथ के भेदभाव बिना नि:शुल्क योग शिक्षा दी जाती है । आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए पुस्तकें भी प्रकाशित की जाती हैं । श्री कयावरोहन तीर्थ सेवा समाज के अंतर्गत सन 1985 से श्री डाहयाभाई हीराभाई पटेल रुरल वोकेशनल टेकनीकल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट (I.T.I.) की स्थापना के गई है जहां युवको और युवतियो को अलग-अलग ट्रेड जैसे की कंप्यूटर ऑपरेटर एंड प्रोग्रामिंग असिस्टेंट (COPA) फिटर, इलेक्ट्रीशियन, ड्राफ्ट्समैन सिविल, वायरमैन, वेल्डर तथा सी.एन.सी. मशीन की शिक्षा दी जाती है। दर्शनार्थीओ को ठहरने के लिए अतिथि गृह का निर्माण किया गया है । मंदिर के बगल में एक बड़ी यज्ञशाला भी है, जिसमें वेदोक्त और पुराणोक्त मंत्रों के माध्यम से यज्ञ और अनुष्ठान किए जाते हैं । यहा मुफ्त भोजन के लिए अन्नपूर्णा भी चलाई जाती है। इसके अलावा महाशिवरात्रि के दिन रात्रि चार-प्रहर पूजा की बहुत ही सुंदर व्यवस्था होती है ।
सांप्रत काल में योगविद्या और सनातन धर्म के पुनरुद्धार के हेतु भगवान लकुलिशजी ने एक नई आध्यात्मिक परम्परा शुरू की । यह दिव्य विभूति द्वारा स्वामीश्री कृपालवानंदजीको सन् 1931 में योग दीक्षा प्राप्त हुई । भगवान लकुलिशजी के आदेश के अनुसार, उन्होंने भगवान ब्रह्मेश्वर के ज्योतिर्लिंग की प्राण प्रतिष्ठा की और तीर्थ के पुनरुद्धार का कार्य पूरा किया । स्वामी श्री कृपालवनन्दजी ने प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धार का कार्य प्रारम्भ किया । ता.29/12/1981 को महासमाधि में ब्रह्मलिन होने तक उन्होंने यह कार्य निष्ठापूर्वक किया । तत्पश्चात् उनके शिष्य ब्रह्मलिन श्री राजर्षि मुनिजी द्वारा इस भारतीय सनातन संस्कृति के पुनरुद्धार का कार्य अविरत चलता रहा । आज भी ब्रह्मलीन स्वामीश्री कृपालवानंदजी और स्वामीश्री राजर्षि मुनिजी के शिष्यों द्वारा सनातन संस्कृति को पुनरुत्थान करने का कार्य पूरी निष्ठा से चल रहा है ।